बुद्ध और बंगाल के बीच की खोई हुई कड़ी है मेटेली की ढाकेश्वरी दुर्गा मां

तिब्बती लोकाचार से जन्म होने के कारण काली मूर्ति की मुखाकृति इस जिले में मौजूद अन्य मंदिरों में स्थापित मां काली की मूर्ति जैसी नहीं है। यहां काली के साथ-साथ दुर्गा भी स्थापित हैं।

By Debarghya Bhattacharya, Posted By : Moumita Bhattacharya

Sep 22, 2025 14:41 IST

सब्यसाची घोष, मेटेली

'जय जय योगेन्द्र जाया

असीम दया उनकी,

उस चरण में जगह ले लो

तभी होगे पार।'

विश्वास ऐसा ही गहरा है। इसलिए संकट की बैतरणी पार करने मेटेली दौड़े आते हैं भक्त। ढाकेश्वरी की विशाल मूर्ति के सामने घुटने टेककर खड़े हो जाते हैं। भक्तिभाव के अलावा इस पूजा का कोई यूएसपी नहीं है। पास ही काली मंदिर है। वहां बहुत प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं। काली माँ की मूर्ति में तिब्बती प्रभाव स्पष्ट है। ये सभी मूर्तियां कितनी पुरानी हैं, किसी को नहीं पता।

मंदिर कमेटी के पास अंतिम उपलब्ध दस्तावेज से हिसाब लगाकर दुर्गा पूजा लगभग 153 साल पुरानी बताई जाती है। यहां पूर्व बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) से आए कई लोग रहते हैं। उनके लिए यह दुर्गा ढाकेश्वरी है। ढाका के ढाकेश्वरी मंदिर को याद रखते हुए।

सिक्किम तब चोगियाल राजवंश के अधीन था। तिब्बत बौद्ध दर्शन का पीठस्थान के रूप में विराजमान था। चीन और तिब्बत से सिक्किम होकर विभिन्न पर्वतीय रास्तों को पैदल पार कर डुअर्स की ओर बौद्ध सन्यासी पहुंचे थे। उस समय रेशम का व्यापार चरम पर था। उस समय बौद्ध संन्यासियों का दल वर्तमान कालिम्पोंग के सामसिंग होकर मेटेली के तुलनात्मक समतल भूमि पर कुछ समय ठहरकर आराम करता था।

उसी समय से इस क्षेत्र को मंदिर की तरह से पूजा जाने लगा। मां दुर्गा और मां काली की पूजा की शुरुआत संन्यासियों के हाथों ही हुई। पूरी तरह बौद्ध तांत्रिक मत से काली साधना के जो कुछ निदर्शन बंगाल में हैं, उनमें मेटेली प्रमुख है। बौद्ध अष्टधातु की मूर्ति बनाकर मंदिर स्थापना करते थे। हिंदू लोकाचार में शक्ति की आराधना के रूप में काली का जो स्थान है, बौद्ध तांत्रिक मत की पूजा में भी काली के साथ शक्ति के आधार का संबंध है।

कई लोगों के अनुसार, संन्यासियों के वापसी मार्ग की यात्रा में दुर्गमता, हिमस्खलन, जंगली जानवरों के हमले के डर के सामने मन को मजबूत आधार पर खड़ा करने के लिए मेटेली में काली मंदिर बनाकर पूजा शुरू होती है।

तिब्बती लोकाचार से जन्म होने के कारण काली मूर्ति की मुखाकृति इस जिले में मौजूद अन्य मंदिरों में स्थापित मां काली की मूर्ति जैसी नहीं है। यहां काली के साथ-साथ दुर्गा भी स्थापित हैं। पूजा कमेटी के अध्यक्ष दिलीप गुह राय बताते हैं कि इस मंदिर का सबसे बड़ा अनुष्ठान दशभुजा की आराधना है। मंदिर में अलग दुर्गा दालान है। प्रतिमा वहीं बनाई जाती है।

एकचाला ढाकेश्वरी शैली में विशाल प्रतिमा जलपाईगुड़ी जिले की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा का राज्य सरकार से पुरस्कार भी जीत चुकी है। यहां अनगिनत लोग दुर्गा पूजा देखने आते हैं। आसपास के 20 चाय बागानों के लोग भी आते हैं। सचिव बापी साहा, कोषाध्यक्ष पलाश कुंडू दुर्गा पूजा की तैयारियों में बेहद व्यस्त हैं। पूजा के प्रधान पुरोहित कृत्तिवास चक्रवर्ती और कल्लोल चक्रवर्ती हैं।

भोग पकाने के लिए अलग पुरोहित नवकांत मिश्र हैं। दुर्गापूजा के दिनों में काली मंदिर में सुबह-शाम की पूजा में कोई कमी नहीं रहती। मेटेली कालीबाड़ी का मंदिर कमेटी हर दो साल में बदलता है। दुर्गा पूजा आयोजन की जिम्मेदारी इसी कमेटी पर होती है। मेटेली थाने के ठीक सामने यह मंदिर बंगाल के बौद्ध तांत्रिक काल को आज भी याद दिलाता है। मेटेली 200 साल पहले भूटान के राजा के अधीन था। इसलिए बौद्ध तांत्रिक संस्कृति का प्रभाव रह गया है।

इतिहास के शौकीन लोग घंटों तक जानकारी खोजने के लिए इस मंदिर में समय बिताते हैं। 15 साल पहले दुर्गा दालान के कोने में दीवार बनाने के लिए मिट्टी खोदते समय बौद्ध लामाओं द्वारा निर्मित प्राचीन गुंबद जैसी वास्तुकला सामने आ गई। यहां बलि देने के लिए उपयोग में आने वाला हाड़ीकाठ होने पर भी उस पर खून का धब्बा नहीं लगता है। वहां भी जैसे बौद्ध धर्म की मान्यताएं लागू हैं, अहिंसा का मंत्र आयोजन को घेरे रहता है।

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