नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर सहमति देना, असहमति जताना या उन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आरक्षित रखना जैसे निर्णय अदालत में चुनौती योग्य नहीं हैं। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाले पांच न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर यह फैसला देते हुए स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत किए गए संवैधानिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा संभव नहीं है।
संविधान पीठ का निष्कर्षः अदालत ने कहा कि वह अपने ही बड़े फैसलों की परंपरा से नहीं हट सकती और राज्यपाल तथा राष्ट्रपति के विधेयक-संबंधी निर्णय नॉन-जस्टिसिएबल यानी न्यायिक समीक्षा योग्य नहीं होते। किसी विधेयक की अदालत द्वारा समीक्षा केवल तब संभव है, जब वह कानून बन चुका हो, न कि उससे पहले।
अनुच्छेद 200 और 201 की भूमिकाः अनुच्छेद 200 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वे किसी विधेयक पर सहमति दें, रोकें, पुनर्विचार के लिए वापस भेजें या उसे राष्ट्रपति के पास भिजवाएँ। अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति यह घोषणा कर सकते हैं कि वे विधेयक को अपनी मंजूरी देते हैं या रोके रखते हैं और चाहें तो उसे संदेश सहित वापस भी भेज सकते हैं।
तमिलनाडु के फैसले को गलत बतायाः अदालत ने कहा कि दो-न्यायाधीशों के पीठ द्वारा दिया गया पुराना तमिलनाडु वाला फैसला, जिसमें राज्यपाल की कार्रवाइयों को न्यायिक समीक्षा योग्य माना गया था, संवैधानिक समझ और बड़े फैसलों से अलग था। नये पीठ ने कहा कि राज्यपाल का फैसला कोई अंतिम कार्य नहीं होता, बल्कि संवैधानिक संवाद की प्रक्रिया का हिस्सा होता है।
संवादी प्रक्रिया न्यायालय के दायरे से बाहरः पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि इस प्रक्रिया में कई संवैधानिक संस्थाएँ शामिल रहती हैं, जो इसे सलाहकारी और विचार-विमर्श आधारित बनाती हैं। इसलिए यह प्रक्रिया न तो कार्यकारी आदेश मानी जा सकती है और न ही इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
न्यायिक समीक्षा केवल कानून बनने के बादः अदालत ने कहा कि यदि राज्यपाल द्वारा विधेयक को लौटाने, रोकने या आरक्षित रखने को चुनौती योग्य माना जाए तो सहयोग देने को भी चुनौती दी जा सकेगी, जिससे विधेयक के कानून बनने से पहले ही कानूनी लड़ाई शुरू हो जाएगी, जो अव्यावहारिक और असंवैधानिक है।