नई दिल्लीः निःसंतान हिंदू विधवा की संपत्ति पर किसका अधिकार है? पति के परिवार का या मायके के रिश्तेदारों का? कई मामलों के चलते इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में हलचल मची हुई है। इस संबंधित मामले की सुनवाई में न्यायाधीश बीवी नागरत्ना ने कहा है कि हिंदू विवाह कानून में एक महिला शादी के समय गोत्रांतरित होकर पति के गोत्र में चली जाती है। इसलिए उसकी संपत्ति पर मायके का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
भविष्य में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश बनने वाली न्यायाधीश बीवी नागरत्ना के मुंह से महिलाओं के गोत्रांतर और संपत्ति के अधिकार पर इस तरह की टिप्पणी से देशभर में विवाद छिड़ गया है। हिंदू उत्तराधिकार कानून की धारा 15(1)(बी) में है कि अगर कोई महिला वसीयत न करके निःसंतान और विधवा अवस्था में मर जाती है तो उसके पति की संपत्ति के साथ-साथ उसकी निजी और स्वोपार्जित संपत्ति पर भी पति के परिवार का ही अधिकार होगा।
इस धारा को ही चुनौती देते हुए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दो मामले दायर किए गए हैं। एक घटना में कोविड महामारी के दौरान एक युवा दंपति की मृत्यु हो गई। मृत युवक की मां ने बेटे के साथ-साथ मृत पुत्रवधू की संपत्ति का भी अधिकार मांगा। उसे चुनौती देते हुए मृत युवती की मां अदालत पहुंची।
एक अन्य मामले में एक मृत विधवा और निःसंतान महिला की संपत्ति पर अपना दावा स्थापित करने के लिए उस महिला की ननद अदालत पहुंची। इन दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बीवी नागरत्ना और आर महादेवन की बेंच में चल रही है। वहीं मामले की सुनवाई के दौरान दक्षिण भारत में हिंदू विवाह पद्धति का प्रसंग न्यायाधीश नागरत्ना ने उठाया।
उन्होंने कहा, 'शादी के समय कन्यादान के बाद लड़कियों का गोत्र बदल जाता है। हमारे दक्षिण भारत की प्रथा है कि शादी के समय मायके के गोत्र से लड़की पति के गोत्र में चली जाती है। हजारों सालों से चली आ रही इस रीति को तोड़ने की कोई इच्छा सुप्रीम कोर्ट की नहीं है।'
इसी प्रसंग में न्यायाधीश नागरत्ना ने कहा कि शादी के बाद लड़कियों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी पति और उसके परिवार की है तो फिर निःसंतान और विधवा अवस्था में मृत्यु होने पर उस महिला की संपत्ति भी पति के परिवार को ही मिलनी चाहिए, मायके को नहीं। न्यायाधीश नागरत्ना के अनुसार, 'विवाहित कोई लड़की तो भरण-पोषण के लिए अपने भाई से दावा नहीं करती, पति से ही भरण-पोषण मांगती है, तो फिर संपत्ति के मामले में अलग क्यों होगा?'
न्यायाधीश की इस टिप्पणी से ही तीव्र विवाद शुरू हो गया है। सवाल उठे हैं कानून की व्याख्या के प्रसंग में क्यों गोत्रांतर जैसी धार्मिक-सामाजिक रीति को लाया जाएगा। एक याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार कानून की वह विशिष्ट धारा भेदभावपूर्ण और एकतरफा है। निःसंतान अवस्था में किसी पुरुष की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति उसके परिवार के सदस्य ही पाते हैं तो फिर एक महिला के संतान न होने पर मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति सिर्फ पति का परिवार क्यों पाएगा?
इस प्रसंग में शीर्ष अदालत की बेंच ने कहा, 'सिर्फ तथ्य के आधार पर बुरा कानून नहीं बन सकता। हजारों सालों से जो रीतियां चली आ रही हैं, हम कलम के एक झटके से उन्हें बदल नहीं सकते।'
एक अन्य याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने कहा कि यह मामला सिर्फ कानूनी व्याख्या या धार्मिक प्रथा के विरोध का नहीं है। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि विभिन्न धर्मों में उत्तराधिकार कानून अलग-अलग हैं। इस कारण अभी हिंदू उत्तराधिकार कानून की उस धारा को रद्द करने में शीर्ष अदालत संकोच कर रही है। इसके बाद ही अदालत ने दोनों मामलों को सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थता केंद्र में भेजकर याचिकाकर्ताओं को मामले को सुलह से निपटाने की सलाह दी है। हालांकि शीर्ष अदालत ने कहा कि मू मूल प्रश्न के निपटारे के लिए मामला चलता रहेगा।