नयी दिल्लीः विभिन्न रक्त रोगों के इलाज में आजकल अक्सर स्टेम सेल थेरेपी का प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत अस्थि-मज्जा प्रत्यारोपण किया जाता है। कई आनुवंशिक रोगों के उपचार में जीन थेरेपी का उपयोग होता है। कोविड के समय प्लाज्मा थेरेपी का भी प्रयोग किया गया था। दुर्लभ होने पर भी जेनोग्राफ्ट चिकित्सा के माध्यम से प्रयोगात्मक रूप से अन्य जानवरों के अग्न्याशय की कोशिकाओं का प्रत्यारोपण मनुष्य के अग्न्याशय में किया जाता है, ताकि इंसुलिन का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो सके।
हालाँकि, इन अत्याधुनिक उपचारों के सामने सबसे बड़ी बाधा है-इनका अत्यधिक खर्च। इन थेरेपियों पर कोई ठोस सरकारी नियंत्रण नहीं होने के कारण विभिन्न चिकित्सा केंद्रों में इनके इलाज के तौर-तरीकों में तालमेल की कमी भी देखी जाती है। इस बार केंद्र सरकार इन सभी थेरेपियों को एक छत के नीचे लाना चाहती है। सेल थेरेपी, जीन थेरेपी और जेनोग्राफ्ट जैसी अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को दवा का दर्जा देकर ड्रग लाइसेंसिंग कानून के दायरे में लाने की पहल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने की है। जैव-प्रौद्योगिकी के निरंतर विकास को चिकित्सा विज्ञान में और अधिक संगठित ढंग से उपयोग में लाने के उद्देश्य से केंद्र ने इन सभी थेरेपियों को केंद्रीय नियंत्रण में लाने और खर्च पर लगाम लगाने का यह कदम उठाया है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम स्वागतयोग्य है।
1940 के ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में नई तरह की इन थेरेपियों को 'नई दवा' (New Drug) के रूप में घोषित किया गया है। उम्मीद है कि इससे सेल और जीन थेरेपी का उपयोग बढ़ेगा और इलाज अपेक्षाकृत सस्ता व सुलभ होगा। इसके परिणामस्वरूप, भविष्य में इस तरह के उपचार शुरू करने से पहले क्लिनिकल ट्रायल, उत्पादन और बाज़ार में उपलब्धता के प्रत्येक चरण में केंद्रीय दवा नियंत्रक संस्था सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) की अनुमति आवश्यक होगी, साथ ही उसकी निरंतर निगरानी भी रहेगी। केंद्रीय फैसले के परिणामस्वरूप हीमोफिलिया, सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया, कई प्रकार के कैंसर और स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी जैसे दुर्लभ आनुवंशिक रोगों में उपयोग होने वाली सेल और जीन थेरेपी जैसी अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को गुणवत्ता और सुरक्षा के निर्धारित ढांचे में रखना संभव हो सकेगा। स्वास्थ्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि ये थेरेपियाँ अत्यंत जटिल और जैव-प्रौद्योगिकी आधारित हैं। इसलिए इनकी प्रभावशीलता, गुणवत्ता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक निगरानी अपरिहार्य है।
विशेषज्ञों के अनुसार, यह कदम भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर की जीन और सेल थेरेपी नीति के समानांतर खड़ा करेगा। इससे इलाज में पारदर्शिता और मरीजों का भरोसा, दोनों बढ़ेंगे। साथ ही, देश के अनुसंधान और बायोटेक इंडस्ट्री के लिए भी यह एक बड़ा प्रोत्साहन है। रक्त रोग विशेषज्ञ डॉ. संदीप साहा कहते हैं कि नई इन थेरेपियों को मनुष्य के शरीर में प्रयोग करने के मामलों में केंद्रीय नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि दवाओं की तरह ही इन थेरेपियों के भी साइड इफेक्ट और विपरीत प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इसलिए इनका गुणवत्ता नियंत्रण बहुत जरूरी है। क्लिनिकल फार्माकोलॉजी विशेषज्ञ डॉ. शाम्ब सम्राट समाजदार के अनुसार यह कदम सिर्फ प्रशासनिक सुधार नहीं है, बल्कि भारत के क्लिनिकल फार्माकोलॉजी और बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्र को काफी आगे ले जाएगा। इससे विज्ञान की उत्कृष्टता और मरीज की सुरक्षा दोनों मजबूत होंगे। हालाँकि, चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। जीन थेरेपी की लागत अब भी बहुत अधिक है। कुछ मामलों में कई करोड़ रुपये तक, जो आम लोगों की पहुँच से बाहर है। विशेषज्ञों के अनुसार सिर्फ नियंत्रण ढाँचा बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि सरकारी वित्तीय सहायता या बीमा कवरेज के बिना इस इलाज को जनसुलभ बनाना संभव नहीं है।