मुंबई: अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य 91 के स्तर को पार कर सर्वकालिक निचले स्तर पर पहुंच गया है। अब रुपये का मामला केवल एक मुद्रा संकट की कहानी नहीं है, बल्कि वित्तीय बाजार के हर हिस्से में चिंता का केंद्र बन गया है। रुपये पर लगातार दबाव और घरेलू बाजार में नकदी की आपूर्ति घटने का प्रभाव न सिर्फ विदेशी निवेशकों पर बल्कि देशी निवेशकों के रुख में भी साफ दिखाई दे रहा है। शुरुआत में यह चिंता मुख्य रूप से मुद्रा और बांड (ऋणपत्र) के बाजार तक सीमित थी लेकिन अब यह धीरे-धीरे शेयर बाजार तक फैल रही है। नतीजतन, निवेशक समग्र रूप से और अधिक सतर्क हो रहे हैं।
ब्रोकरेज फर्म Systematics Institutional Equities के अनुसार इस वर्ष अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में लगभग 6.6 प्रतिशत की अवमूल्यन कोई अस्थायी या चक्रीय घटना नहीं है बल्कि 2012 से अधिक एक दशक तक मैनेज्ड डेप्रिसिएशन के कारण रुपये का वास्तविक मूल्य लगभग 90 प्रतिशत घट चुका है। कंपनी के विश्लेषण में कहा गया है कि संरचनात्मक कमजोरी, समय पर रिज़र्व बैंक के हस्तक्षेप में कमी और वैश्विक स्तर पर बढ़ती सावधानी के कारण भविष्य में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन 6 से 7 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रहती है, तो अगले 12-24 महीनों में डॉलर के मुकाबले रुपये का विनिमय दर 100 को पार कर जाना भी असामान्य नहीं होगा। इस संदर्भ में विशेषज्ञों का अनुमान है कि शेयर बाजार की स्थिति भी खास अच्छी नहीं रहेगी और निवेश पर अपेक्षित रिटर्न पाना कठिन हो जाएगा।
कमजोर रुपये के मूल्य तुलनात्मक रूप से उच्च ब्याज दर और धीमी आय वृद्धि की स्थिति में निवेशकों को कुछ विशेष उद्योग क्षेत्रों पर ध्यान देने की सलाह दी जा रही है। रुपये के मूल्य में गिरावट से सूचना प्रौद्योगिकी, फार्मास्यूटिकल्स, ऑटोमोबाइल और धातु क्षेत्रों में निवेश में लाभ होने की संभावना है क्योंकि इन क्षेत्रों की बड़ी आय डॉलर आधारित है। वहीं बैंकिंग, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां, तेल और गैस, ऊर्जा और इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों पर दबाव बढ़ सकता है।
एक समय में मुख्य रूप से रिज़र्व बैंक के नियमित हस्तक्षेप के कारण रुपये को एशिया की सबसे स्थिर मुद्राओं में से एक माना जाता था। 2017 के बाद रुपये का अवमूल्यन औसतन लगभग 4 प्रतिशत प्रति वर्ष हुआ लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि भविष्य में यह दर और बढ़ सकती है।
Systematics की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य 48 रुपये था और तब से अब तक इसका अवमूल्यन कई अन्य उभरते बाजारों की मुद्राओं की तुलना में अधिक है। इस वर्ष रुपये पर दबाव अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शुलक संबंधी घोषणाओं के बाद से बढ़ना शुरू हुआ। चौथी तिमाही में यह दबाव और अधिक तीव्र हो गया और इस महीने मौद्रिक नीति घोषणा के समय प्रमुख बैंक दरों में कटौती और कई अन्य उपायों के बावजूद इसका असर नहीं हुआ।
एमके ग्लोबल के अनुसार इसके पीछे मुख्य कारण हैं: कमजोर निर्यात और त्योहारी सीजन में उपभोग बढ़ने के कारण आयात में वृद्धि, सीधे शब्दों में कहें तो व्यापार घाटा। इसके अलावा, सोने के आयात ने भी अतिरिक्त दबाव डाला है।
दीर्घकाल में रुपये और वित्तीय घाटे के बीच एक स्पष्ट संबंध देखा गया है—घाटे बढ़ने पर भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन होता है। पिछले दशक में जीडीपी के मुकाबले वित्तीय घाटा कम हुआ है लेकिन Systematics का मानना है कि यह वास्तविक आर्थिक शक्ति का प्रतिबिंब नहीं है। बल्कि यह कमजोर घरेलू मांग और निजी निवेश की कमी का परिणाम है। यदि वैश्विक स्तर पर सतर्कता और बढ़ती रहती है, तो स्थिति और जटिल हो सकती है।