सीवानः बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में सीवान की सियासत फिर पुराने रंग में लौट आई है। कभी बाहुबली राजनीति का केंद्र रहा यह जिला एक बार फिर चर्चा में है। RJD ने रघुनाथपुर सीट से शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब को टिकट देकर एक बड़ा दांव खेला है। कुछ महीने पहले हिना शहाब ने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव से मुलाकात कर इसकी मांग की थी। इसके बाद बदलते राजनीतिक घटनाक्रम में मौजूदा विधायक हरिशंकर यादव ने ओसामा शहाब के लिए सीट छोड़ दी।
राजद ने पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब को प्रत्याशी बनाकर स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी अब भी “शहाबुद्दीन फैक्टर” को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। राजद के इस कदम से सियासी हलकों में हलचल तेज है। एक ओर पार्टी इसे विरासत और वफादारी का सम्मान बता रही है तो दूसरी ओर विपक्ष इसे ‘जंगलराज की वापसी’ करार दे रहा है।
राजद ने फिर थामा शहाबुद्दीन परिवार का हाथ
2024 लोकसभा चुनाव में राजद ने शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब को उम्मीदवार बनाया था लेकिन पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। उस हार ने लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि सीवान में अब भी वोटरों का दिल जीतने के लिए ‘भावनात्मक जुड़ाव’ जरूरी है।
सूत्रों के मुताबिक, इसी रणनीति के तहत राजद ने इस बार ओसामा शहाब को टिकट देकर शहाबुद्दीन परिवार को फिर से संगठन के केंद्र में ला दिया है। मौजूदा विधायक हरिशंकर यादव ने पार्टी आदेश पर सीट छोड़ दी जिससे राजद ने ओसामा को स्पष्ट राजनीतिक मंच दिया।
राजद के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि लालू यादव इस फैसले से एक साथ दो लक्ष्य साधना चाहते हैं। पहला ये कि वह मुस्लिम-यादव (MY) वोट बैंक को फिर से मजबूती से जोड़ना चाहते हैं। दूसरा परिवार की पुराने समर्थक नेटवर्क को सक्रिय करना चाहते हैं।
राजद की पुरानी गलती की भरपाई
राजद ने 2024 लोकसभा चुनाव में शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब को टिकट दिया था लेकिन हार के बाद संगठन में नाराज़गी के स्वर उठे। सूत्र बताते हैं कि लालू यादव इस बार कोई जोखिम नहीं लेना चाहते और इसलिए उन्होंने शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारकर ‘परिवार की विरासत’ को फिर से सक्रिय कर दिया है।
शहाबुद्दीन से ओसामा तक — चेहरा बदला, चुनौती वही
मोहम्मद शहाबुद्दीन कभी लालू प्रसाद यादव के ‘सियासी कमांडर’ माने जाते थे। सीवान में उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि पंचायत से लेकर संसद तक उनके इशारे पर राजनीति चलती थी। 1996 से 2004 तक वे चार बार सांसद रहे और राजद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल रहे।
हालांकि तेजाब कांड समेत कई गंभीर मामलों में सजा के बाद उनका प्रभाव सीमित हो गया। 2021 में कोविड संक्रमण के दौरान उनकी तिहाड़ जेल में मौत हो गई लेकिन उनकी राजनीतिक छाया सीवान से पूरी तरह कभी मिट नहीं सकी।
अब बेटा ओसामा शहाब उसी विरासत को संभालने उतरा है लेकिन चुनौती बड़ी है क्योंकि उन्हें पिता की अपराधी छवि से दूरी बनानी होगी। इसके साथ ही उन्हें यह भी साबित करना होगा कि वे ‘नए दौर के नेता’ हैं जो विकास और रोजगार की बात करते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि राजद के लिए शहाबुद्दीन परिवार दोधारी तलवार है जो वोट दिला भी सकता है और डर भी पैदा कर सकता है।
सीवान का चुनावी गणित — हर वोट की कीमत
2020 के विधानसभा चुनाव में राजद के अवध बिहारी चौधरी ने भाजपा के ओम प्रकाश यादव को केवल 1,973 वोटों से हराया था। अवध बिहारी को 76,785 वोट मिले जबकि ओम प्रकाश को 74,812 वोट। इतना मामूली अंतर बताता है कि सीवान की जनता किसी एक पार्टी के साथ स्थायी रूप से नहीं है। यहां हर चुनाव निर्णायक मोड़ पर जाता है।
इतिहास गवाह है कि 1951 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी लेकिन समय के साथ समीकरण बदले और अब यह सीट राजद और भाजपा के बीच सीधा रणक्षेत्र बन चुकी है।
भाजपा और जदयू की रणनीति
विपक्षी दल भाजपा और जदयू इस बार सीवान में विकास, रोजगार और सुरक्षा के एजेंडे पर वोट मांगने की तैयारी में हैं। भाजपा स्थानीय युवाओं और पहली बार वोट डालने वालों को आकर्षित करने पर फोकस कर रही है। उनके लिए शहाबुद्दीन अब एक ‘ऐतिहासिक नाम’ भर हैं जबकि प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं।
स्थानीय मुद्दों की गूंज
सीवान में जातीय समीकरण के साथ-साथ स्थानीय मुद्दे भी हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते हैं। सबसे प्रमुख मांगों में शामिल है भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नाम पर एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी का निर्माण कराने की मांग। इसके साथ ही शहर को बड़े शहरों से एक्सप्रेस-वे कनेक्टिविटी देने की मांग लंबे समय से की जा रही है। स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार और तकनीकी शिक्षा केंद्र खोलने की आवाज उठायी जाती रही है। इससे साफ है कि विकास एजेंडा भी इस बार निर्णायक फैक्टर बन सकता है।
विशेषज्ञों की राय
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक शहाबुद्दीन फैक्टर अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है लेकिन उसका असर पहले जैसा सर्वशक्तिमान भी नहीं रहा। विश्लेषक मानते हैं कि परिवार के प्रति भावनात्मक जुड़ाव अब भी है पर नई पीढ़ी विकास और अवसरों की बात करती है।
2025 का चुनाव तय करेगा कि ‘शहाबुद्दीन फैक्टर’ अब भी वोट दिलाने का पासपोर्ट है या फिर यह सिर्फ अतीत की कहानी बनकर रह जाएगा।
ओसामा के सामने ‘छवि’ की चुनौती
ओसामा शहाब के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पिता की विवादित छवि से बाहर निकलकर खुद को एक युवा, सकारात्मक चेहरा साबित करने की है।
ओसामा पर कुछ आपराधिक मामले दर्ज हैं और वे हाल ही में जेल से बाहर आए हैं। विपक्ष इसे मुद्दा बना रहा है और ‘जंगलराज की वापसी’ का आरोप लगा रहा है।
हालांकि राजद का तर्क है कि ओसामा नए दौर की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनके खिलाफ विपक्ष का हमला “भय पैदा करने की साजिश” है।
सीवान: परंपरा, संघर्ष और सियासत की धरती
सीवान का नाम केवल राजनीति नहीं बल्कि इतिहास और संस्कृति से भी जुड़ा है। यही वह धरती है जिसने भारत को पहला राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद दिया लेकिन 1990 के दशक में यह जिला शहाबुद्दीन के बाहुबली प्रभाव और अपराध के कारण ‘डर के इलाक़े’ के रूप में बदनाम हुआ।
अब नीतीश कुमार की सरकार में कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण आने के बाद माहौल काफी बदल चुका है लेकिन सीवान की सियासी धड़कन आज भी जातीय समीकरणों से संचालित होती है।
2020 में यहां राजद के अवध बिहारी चौधरी ने भाजपा के ओम प्रकाश यादव को सिर्फ 1,973 वोटों से हराया था। यह बेहद करीबी मुकाबला बताता है कि जनता अब एकतरफा नहीं है और हर वोट की अहमियत है।
शहाबुद्दीन फैक्टर: कितना असर बाकी है?
शहाबुद्दीन की राजनीतिक विरासत अब भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक तो है लेकिन वैसा ‘भय और प्रभाव’ अब नहीं बचा जैसा 90 के दशक में था। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सीवान की राजनीति अब संक्रमण काल में है जहां पुराने समीकरण धीरे-धीरे टूट रहे हैं और शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार जैसी नई प्राथमिकताएं उभर रही हैं। राजद ने एक बार फिर शहाबुद्दीन परिवार पर भरोसा जताकर यह दिखाया है कि सीवान की सियासत में भावनात्मक और जातीय समीकरण आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने पहले थे।
वहीं भाजपा इस सीट को विकास और सुरक्षा के मुद्दे पर ‘नया चेहरा’ देने के लिए कमर कस चुकी है। 2025 का चुनाव न केवल यह तय करेगा कि ओसामा शहाब अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा पाएंगे या नहीं बल्कि यह भी कि सीवान की जनता किसे चुनेगी पुरानी पहचान या नए बिहार की सोच को।