शुरुआत एक मतदान विशेषज्ञ के तौर पर हुई थी। बिहार के जिलों और इलाकों में घूमकर रिपोर्ट तैयार करना और मतदान की रणनीति बनाने के अपने अनुभव का इस्तेमाल करते हुए उनकी पार्टी 'जन सुराज पार्टी' (JSP) इस बार सीधे चुनावी मैदान में उतर रही है। प्रशांत किशोर (PK) की यह पार्टी जातिवादी विचारधारा को दरकिनार करते हुए बिहार को विकास का एक नया सपना दिखा रही है। क्या वाकई पीके बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं?
जानकारों का मानना है कि भले ही बात सरकार बनाने की न भी पहुंचे, लेकिन प्रशांत किशोर की पार्टी इस चुनाव में वोट काटकर दूसरी पार्टियों को मुश्किल में डाल सकती है। जेएसपी इकलौती ऐसी पार्टी है जिसने बिहार की सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। प्रचार अभियान की शुरुआत से पीके एक ही बात कहते आ रहे हैं - जाति या विचारधारा मायने नहीं रखती, उनकी पार्टी बिहार के विकास को ध्यान में रखकर चुनाव लड़ेगी। और ऐसे में पीके का हथियार है रोजगार।
बिहार के मेहनती लोगों को हर महीने मात्र 10-12 हजार रुपये कमाने के लिए भी दूसरे राज्यों में नौकरी करने के लिए जाना पड़ता है। प्रशांत इसे ही खत्म करना चाहते हैं। इसीलिए प्रशांत किशोर शिक्षा व्यवस्था में सुधार और उसके आधार पर रोजगार के अवसर पैदा करने का वादा करते दिख रहे हैं।
हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा, 'पिछले कुछ सालों से मंदिर, जाति और दान के नाम पर खूब वोट पड़े हैं। इससे आम आदमी को क्या फायदा मिला? इस बार मैं बिहार के लोगों से कहूंगा कि अपने बच्चों के भविष्य, उनकी शिक्षा और रोजगार के लिए वोट दें। दूसरी पार्टियां भी समझ गई हैं कि बिहार की असली जरूरत यही है। इसलिए तो देखिए वे भी रोजगार के अवसर पैदा करने का वादा कर रहे हैं। लेकिन सिर्फ वादों से क्या होगा?'
कुछ चुनाव विश्लेषकों के अनुसार पीके अपनी बातों से लोगों को रिझाने की क्षमता रखते हैं। क्योंकि उनके शब्दों में दान-पुण्य के वादों की बजाय, सोचे-समझे, तार्किक आश्वासन होते हैं। भले ही उन्होंने खुद चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन उन्होंने जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है वे समाज के शिक्षित वर्ग से आने वाले डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक जैसे विभिन्न पेशों से जुड़े लोग हैं। चुनाव विश्लेषकों के अनुसार प्रशांत किशोर का लक्ष्य मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय मतदाता हैं, जो मुफ्त का राशन या महिलाओं के लिए मासिक आर्थिक भत्ते के पीछे नहीं भागते। बल्कि उनके लिए अपने बच्चों का भविष्य ज्यादा महत्व रखता है।
इतना ही नहीं प्रशांत किशोर बिहार के सीमावर्ती इलाकों यानी अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार जैसे मुस्लिम बहुल जिलों में भी जोर-शोर से प्रचार अभियान चला रहे हैं। उनकी हर रैली में भारी भीड़ उमड़ रही है। अगर उस भीड़ का थोड़ा सा भी हिस्सा भी मतदान कर देता है, तो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव पर दबाव बढ़ सकता है। साल 2020 के चुनाव में बिहार के सीमावर्ती इलाकों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने जीत हासिल की थी। लेकिन इस बार वहां भी हवा का रुख बदल चुका है।
किशनगंज के 35 वर्षीय व्यवसायी अबू जाफर का कहना है, 'पीके की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही है। बड़ी तादाद में युवा उन्हें सुनने के लिए पहुंच रहे हैं। अब तक सभी पार्टियां ही हमारी धार्मिक पहचान को तरह-तरह के वादे करने के लिए इस्तेमाल करती रही थी, लेकिन पीके मुस्लिम मतदाताओं को अच्छी शिक्षा, रोजगार और विकास का सपना भी दिखा रहे हैं। यही बात युवाओं को पसंद आ रही है।'
परवेज आलम, जो किशनगंज से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। उनका मानना है कि ग्रामीण मतदाताओं को प्रभावित करना मुश्किल है। वे मुखियाओं के कहने पर ही वोट देते हैं। लेकिन पीके की पार्टी को अगर शहरी इलाकों में 10 प्रतिशत भी वोट मिल जाता है, तो 'इंडिया' गठबंधन को कई सीटों का नुकसान होगा और इसका फायदा एनडीए को मिलेगा। हालांकि, जेवीसी के सर्वेक्षण में पता चला है कि पीके की पार्टी 243 सीटों में से सिर्फ 1-2 सीटें ही जीत सकेगी।
वहीं भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन की झोली में 120-140 सीटें जा सकती है। महागठबंधन को 93-112 सीटें मिल सकती हैं। हालांकि यह भी संभावना जतायी जा रही है कि कई सीटों पर प्रशांत किशोर की पार्टी वोट कटवा हो सकती है। इस वजह से एनडीए और महागठबंधन दोनों खेमों के वोट प्रतिशत में कमी आने की संभावना भी जतायी जा रही है।
नीतीश कुमार हमेशा से महिला वोटरों को लक्ष्य बनाते रहे हैं। पहले भी महिलाओं को कई तरह के भत्ते दिए जाते रहे हैं। इस बार नीतीश ने सत्ता में आने के बाद डेढ़ करोड़ महिलाओं को ₹10,000 की आर्थिक मदद देने का वादा किया है। दूसरी ओर राजद के तेजस्वी यादव ने आश्वासन दिया है कि सत्ता में आने के बाद वह हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देंगे। लेकिन क्या इन वादों को निभाना मुमकिन है?
इस बारे में प्रशांत किशोर का कहना है, 'मैं झूठ की होड़ में नहीं लगा सकता। मौजूदा सरकार भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाकर आम जनता से रुपए ले रही है और चुनाव से पहले उन रुपयों को दान में बांट रही है। और अगर हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी मिल सकें, तो बिहार में नौकरी के इतने अवसर कहां हैं?' पीके ने बिहार की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उत्पाद शुल्क के साथ शराब की बिक्री को वैध बनाने का भी वादा किया है। जानकारों का मानना है कि प्रशांत का यह उचित स्पष्टीकरण नई पीढ़ी को आकर्षित कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे कभी अरविंद केजरीवाल की पार्टी 'आम आदमी पार्टी' (आप) ने दिल्ली में लोगों का दिल जीता था।
क्या जेन ज़ी के वोट वाकई पीके की पार्टी को मिलेंगे? इस सवाल का जवाब तो 14 नवंबर को मतगणना वाले दिन ही मिल सकेगा।