बिहार विधानसभा चुनाव 2025: बिहार की राजनीति एक बार फिर ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है। राज्य में 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में मतदान होगा और 14 नवंबर को यह साफ हो जाएगा कि सत्ता की कमान एक बार फिर सुशासन बाबू नीतीश कुमार के हाथ में रहेगी या फिर जनता तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बदलाव की बयार लाएगी। यह चुनाव केवल दो गठबंधनों -राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन (MGB) के बीच नहीं है बल्कि यह बिहार की जनता के लिए “वर्तमान की हकीकत” और “भविष्य की उम्मीद” के बीच चुनाव है।
नीतीश कुमार: बीस साल की हकीकत का सामना
नीतीश कुमार ने 2005 में बिहार की सत्ता संभाली थी। उस समय बिहार ‘जंगलराज’ की छवि से जूझ रहा था और उन्होंने विकास, कानून व्यवस्था और सुशासन के नाम पर नया नैरेटिव गढ़ा। दो दशकों तक सत्ता में रहने के बाद, अब उनके सामने चुनौती यह है कि जनता उस “सुशासन” की कहानी पर अब भी भरोसा करती है या नहीं। हालांकि उनके पास बीजेपी, संघ परिवार, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे जातीय और राजनीतिक सहयोगियों का मजबूत गठजोड़ है।
केंद्र की योजनाओं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी एनडीए के पक्ष में एक बड़ा कारक है लेकिन बीस साल की थकान और बार-बार की सियासी पलटियों ने नीतीश की छवि को कहीं-न-कहीं धुंधला भी किया है। 2022 में महागठबंधन में जाकर 2024 में फिर एनडीए में लौटने से विपक्ष उन्हें ‘पलटूराम’ कहता है जबकि समर्थक इसे ‘राजनीतिक व्यावहारिकता’ मानते हैं।
नीतीश ही NDA का चेहरा
गौरतलब है कि दरभंगा के अलीनगर की सभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह साफ कर दिया कि NDA का मुख्यमंत्री चेहरा केवल नीतीश कुमार ही हैं। उन्होंने लालू यादव और सोनिया गांधी पर हमला बोलते हुए कहा था कि लालू प्रसाद अपने बेटे तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और सोनिया गांधी अपने बेटे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती हैं, लेकिन ये दोनों पद खाली नहीं हैं। इस बयान के साथ ही शाह ने विपक्ष के उस दावे पर विराम लगाने की कोशिश की कि भाजपा चुनाव के बाद नया चेहरा लाएगी। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव दोनों बार-बार शिवराज सिंह चौहान का उदाहरण दे रहे थे कि भाजपा चुनाव के बाद चेहरा बदल देती है। शाह के बयान ने यह साफ किया कि भाजपा इस बार नीतीश के नेतृत्व में ही मैदान में है।
तेजस्वी यादव: उम्मीद की राजनीति और ‘नौकरी का ब्रह्मास्त्र’
विपक्षी महागठबंधन का चेहरा तेजस्वी यादव हैं जिन्हें उनके पिता लालू यादव ने औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। तेजस्वी ने युवाओं और बेरोजगारी को केंद्र में रखकर ‘तेजस्वी प्रण’ जारी किया है जिसमें हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने और जीविका दीदियों को स्थायी सरकारी रोजगार का वादा है। यह ‘नौकरी वाला वादा’ युवाओं के बीच असर डाल रहा है लेकिन एनडीए ने भी इसका तोड़ निकालते हुए अपने संकल्प पत्र में एक करोड़ रोजगार का प्रावधान जोड़ा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह चुनाव ‘बेरोजगारी बनाम विकास’ का भी मुकाबला बन गया है।
‘मुख्यमंत्री रेखा’ और भूगोल की राजनीति
बिहार के राजनीतिक इतिहास में गंगा के दक्षिणी हिस्से ने हमेशा सत्ता की बागडोर संभाली है। पटना, नालंदा, गया जैसे जिले यानी मगध क्षेत्र हमेशा राजनीतिक रूप से प्रभावी रहे हैं। नीतीश कुमार (नालंदा) भी इसी ‘मुख्यमंत्री रेखा’ से आते हैं। तेजस्वी यादव (गोपलगंज-समस्तीपुर) को इस रेखा को पार कर सत्ता पाने की चुनौती है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह चुनाव उस “रेखा” को तोड़ने का मौका भी हो सकता है जो अब तक बिहार के मुख्यमंत्री तय करती रही है।
जनता की राय: तीन खेमों में बंटा बिहार
बिहार का मतदाता इस बार तीन धाराओं में बंटा नजर आ रहा है। एनडीए समर्थक वर्ग, जो नीतीश के काम और मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा करता है। महागठबंधन का समर्थक वर्ग- जो बदलाव चाहता है और तेजस्वी की घोषणाओं से प्रभावित है। जनसुराज या तीसरे मोर्चे के समर्थक- जो प्रशांत किशोर की साफ सियासत की उम्मीद देखते हैं। हालांकि फ्लोटिंग वोटर अब भी दोनों बड़े गठबंधनों की जीत या हार तय कर सकते हैं।
नीतीश का इतिहास: नौ बार सीएम, हर बार नया समीकरण
नीतीश कुमार अब तक नौ बार मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके हैं — कभी भाजपा के साथ, कभी राजद-कांग्रेस के साथ। उनका यह राजनीतिक सफर बताता है कि वे बिहार की सत्ता की धुरी हैं, चाहे समीकरण जो भी हों। उन पर “पलटूराम” के आरोप लगते रहे हैं लेकिन सत्ता की नब्ज को समझने में वे अब भी माहिर माने जाते हैं।
हकीकत बनाम उम्मीद — 14 नवंबर को फैसला
इस चुनाव में कोई लहर नहीं दिख रही है। एनडीए नीतीश के “बीस साल के काम” को गिना रहा है तो महागठबंधन तेजस्वी की “नई सोच” को बेच रहा है। बिहार की जनता के सामने दो रास्ते हैं । वे नीतीश कुमार की “हकीकत” को चुन सकते हैं या फिर तेजस्वी यादव की “उम्मीद” को मौका दे सकते हैं। 14 नवंबर को जब नतीजे आएंगे तो यह सिर्फ इस बात का फैसला नहीं होगा कि बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा बल्कि यह भी तय होगा कि बिहार की राजनीति भविष्य की ओर बढ़ी है या अतीत की स्थिरता को चुना है।