विज्ञापन ऐसे जिनमें हम खो जाते थे, नॉस्टेल्जिया का इतिहास बन कर पीयूष हमारी यादों में हमेशा ज़िंदा रहेंगे

अमीर-गरीब, पुरुष-महिला सबकुछ भूलकर मानवता की भाषा में विज्ञापनों का स्क्रिप्ट लिखा करते थे।

By देवदीप चक्रवर्ती, Posted by: श्वेता सिंह

Oct 25, 2025 00:39 IST

परिवार का सबसे छोटा सदस्य छत पर एंटीना ठीक कर रहा है। परिवार के बड़े-बुज़ुर्ग नीचे से निर्देश दे रहे हैं। आखिर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर तस्वीर नजर आने लगती है। पूरा परिवार अपना पसंदीदा सीरियल देखने लगता है। थोड़ी ही देर में ब्रेक शुरू हो जाता है। फिर कुछ मिनटों तक लगातार विज्ञापन आने लग जाते हैं। बस, सब के सब चिढ़ने लग जाते हैं। 'एडमैन' पीयूष पांडे ने लोगों की झुंझलाहट के उस कैनवास पर चटख रंग बिखेर दिए थे।

भारतीय विज्ञापन जगत का इतिहास हिक्की के बंगाल गजट से शुरू हुआ। स्याही और कलम की मदद से एक के बाद एक इतिहास अख़बार के पन्नों पर पेश किया जाता था जिसमें स्वदेशी सोच का भी स्पर्श होता था। उस परंपरा की कमान पीयूष के पास आई। बस माध्यम अलग था। वे 30 से 60 सेकंड की 'छोटी कहानियां' सुनाते थे जो खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होती थी।

कहानी की यह किताब विज्ञापन पुस्तिकाओं में छपी थी। लेकिन हर पन्ने पर जीवन दर्शन, प्रेम के मंत्र और भारतीय संस्कृति की झलक मिलती थी। विज्ञापन का मतलब अस्थायी थकान नहीं होता बल्कि पीयूष ने 'हर घर कुछ कहता है' की व्याख्या की। उन्होंने उत्पाद की भाषा को भारतीय जीवनशैली के साथ जोड़ा। ' कभी टूटेगा नहीं' ने जो बंधन रचा, वह एक अद्भुत अनुभव था।

वे अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष के भेद से ऊपर उठकर मानवता की भाषा में विज्ञापन लिखते थे। कभी सामाजिक बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ने की खुशी होती तो कभी पूंजीवादी वर्चस्व पर व्यंग्यात्मक प्रहार। उन्होंने करोड़ों भारतीयों को यह सोचना सिखाया, "कुछ खास है ज़िंदगी में।"

जब उन्होंने विज्ञापन जगत में कदम रखा तब उनकी उम्र सिर्फ़ 27 साल थी। 1982 में उन्होंने ओगिल्वी ज्वाइन किया। अक्सर शर्ट, ट्राउज़र और राजस्थानी जूते पहनकर दफ्तर पहुंचते थे। दफ्तर के गंभीर माहौल के बीच वे अचानक ऐसा'मजाक' करते थे कि कोई भी हंसे बिना नहीं रह पाता था।

बस यही तो शुरुआत थी तब से चार दशक बीत चुके हैं। एक साधारण कर्मचारी से लेकर उन्होंने ओगिल्वी इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष (भारत) और मुख्य रचनात्मक अधिकारी (विश्वव्यापी) के रूप में काम किया है।

अपनी रचनात्मकता की शक्ति से वे कार्यस्थल पर एक-एक करके आगे बढ़ते गए। राजस्थान का एक युवा 'भारतीय विज्ञापन जगत का जनक' बन गया।

रील्स, फेसबुक और वॉट्सऐप के ज़माने में भी लोग 90 के दशक की 'नॉस्टैल्जिया' के बारे में बात करते हैं। उस दौर के विज्ञापनों ने पिछली पीढ़ियों के ज़हन में उतनी ही जगह बना रखी है जितनी उस दौर की फिल्मों, गानों और साहित्य ने। इनमें से एक नाम है पीयूष पांडे का।

कवि शंख घोष ने लिखा था, ‘मैं अकेला खड़ा हूं, तुम्हारे लिए गली के मोड़ पर, सोचता हूं कि अपना चेहरा दिखाऊंगा लेकिन चेहरा तो विज्ञापन से ढका हुआ है।’ विज्ञापन का मतलब चेहरा ढकना नहीं होता। विज्ञापन का मतलब भावनाओं को दबाना नहीं होता। आप विज्ञापनों में भी दिल को खुश करने वाली कविताएं लिख सकते हैं। आप विज्ञापनों में भी जीवन के चित्र बना सकते हैं। जिसने ऐसा किया वो कोई और नहीं पीयूष हैं, वो अमर हैं…..।

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