भारत को अक्सर किसानों का देश कहा जाता है। हालांकि कच्चे जूट की कीमतों में बेतहाशा इजाफा, बदलती जीवनशैली, उपभोग की संस्कृति और नीतिगत असंतुलन ने पारंपरिक खेती को धीरे-धीरे हाशिये पर धकेल दिया है। इसी बदलाव की सबसे बड़ी मिसाल आज जूट उद्योग बन चुका है। कभी जिसे “सुनहरा रेशा” कहा जाता था, वही जूट आज किसानों, मिल मालिकों और लाखों मजदूरों के लिए अनिश्चित भविष्य का प्रतीक बन गया है।
जूट उत्पादन से बेरोजगारी तक का सफर
करीब 10,000 करोड़ रुपये का जूट उद्योग सिर्फ एक आर्थिक सेक्टर नहीं है। यह पश्चिम बंगाल, असम, बिहार और ओडिशा के लाखों किसानों और मजदूरों की आजीविका से जुड़ा है। भारत दुनिया के कुल जूट उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पैदा करता है। ऐसे में यह संकट ग्रामीण अर्थव्यवस्था और हरित नीति-दोनों के लिए गंभीर चेतावनी है।
संकट का सबसे दर्दनाक पहलू मजदूरों की हालत है। उत्तर 24 परगना के जगद्दल जूट मिल के अचानक बंद होने से अनगिनत मजदूर एक झटके में बेरोजगार हो गए। हुगली के महादेव जूट मिल भी पहले ही अपना उत्पादन बंद कर चुका है। इन दोनों मिलों के बंद होने से साल के अंत में लगभग 3,000 श्रमिकों की आजीविका अनिश्चित स्थिति में आ गई है।
हुगली औद्योगिक क्षेत्र की कई अन्य कारखानों में भी कच्चे जूट की कमी के कारण प्रबंधन को किसी न किसी तरह काम चलाने पर मजबूर होना पड़ रहा है। कुछ मिलें सप्ताह में केवल 10 से 15 शिफ्ट ही चला पा रही हैं, जो लाभकारी उत्पादन के लिए पर्याप्त नहीं है। भविष्य में कीमतों में और वृद्धि की आशंका के चलते मिल मालिक अपने पास मौजूद थोड़े से कच्चे माल को सुरक्षित रख रहे हैं।
जब कच्चा माल ही बना सबसे बड़ी चुनौती
बीते कुछ महीनों में कच्चे जूट की कीमतों में आई तेज उछाल ने पूरे उद्योग की नींव हिला दी है। जुलाई तक जो जूट लगभग 60 हजार रुपये प्रति टन में मिल रहा था, वह देखते-देखते दोगुने स्तर के करीब पहुंच गया। यह बढ़ोतरी सामान्य मांग–आपूर्ति का नतीजा नहीं, बल्कि गहरी कमी का संकेत है। व्यापारी और स्टॉकिस्ट आगे कीमतें और बढ़ने की उम्मीद में माल रोक रहे हैं, जबकि जूट मिलों को उत्पादन चलाने के लिए जरूरी कच्चा माल ही नहीं मिल पा रहा।
पश्चिम बंगाल में कच्चे जूट की कीमत 11,000 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर पहुंच गई है, जिससे जूट उद्योग गंभीर संकट में है। न केवल बढ़ती कीमत, बल्कि आवश्यक कच्चा माल की कमी भी मिलों को प्रभावित कर रही है। कई मिलों ने उत्पादन घटा दिया है, शिफ्ट रद्द की जा रही हैं, और कुछ मिलें पूरी तरह बंद हो गई हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि बाजार में विक्रेता लगभग नहीं हैं और स्टॉकिस्ट कृत्रिम संकट पैदा कर स्थिति को और जटिल बना रहे हैं।
इस बीच, अदालत के निर्देश के बाद जूट मिलों को बोरे के दाम में संशोधन के साथ क्षेत्रीय महंगाई भत्ता देना शुरू करना पड़ा, जिससे उत्पादन लागत और बढ़ गई। उद्योग जगत का आरोप है कि बोरे के दाम में यह संशोधन कच्चे जूट की असामान्य कीमत वृद्धि के मुकाबले पर्याप्त नहीं है, जिसके कारण कार्यशील पूंजी पर गंभीर दबाव बन गया है। उनका दावा है कि हाल ही में डिप्टी जूट कमिश्नर और पश्चिम बंगाल के श्रम मंत्री की मौजूदगी में उच्चस्तरीय बैठक में लिए गए निर्णय को लागू करने की कोई पहल नहीं दिखाई दी।
सीमा पार फैसले का सीधा असर
इस संकट को बांग्लादेश के एक फैसले ने और गहरा किया। सितंबर 2025 से कच्चे जूट के निर्यात पर वहां अचानक रोक लगा दी गई। भारतीय जूट उद्योग लंबे समय से बांग्लादेशी आपूर्ति पर निर्भर रहा है, इसलिए यह फैसला घरेलू बाजार के लिए बड़ा झटका साबित हुआ।
विडंबना यह है कि भारत से भेजे गए उच्च गुणवत्ता वाले जूट बीजों से बने उत्पाद बांग्लादेश में तैयार होकर सस्ते दामों पर वापस भारतीय बाजार में आ रहे हैं। इससे घरेलू मिलों की प्रतिस्पर्धा और कमजोर हो गई।
किसान क्यों छोड़ रहे हैं जूट?
आज की कमी सिर्फ अंतरराष्ट्रीय कारणों से नहीं है। पिछले कई वर्षों तक जूट की कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे रहीं। सरकारी खरीद सीमित रही, भुगतान में देरी हुई और किसानों का भरोसा टूटता चला गया।
परिणाम यह हुआ कि पश्चिम बंगाल, बिहार और असम जैसे पारंपरिक जूट क्षेत्रों में किसानों ने मक्का जैसी फसलों की ओर रुख किया, जहां दाम बेहतर और बाजार ज्यादा भरोसेमंद था। बोआई क्षेत्र में आई गिरावट ने आज के संकट की जमीन तैयार की।
नीति, कानून और बिगड़ता संतुलन
जूट पैकेजिंग सामग्री अधिनियम दशकों तक इस उद्योग का सुरक्षा कवच रहा। इससे किसानों को सुनिश्चित मांग, मिलों को स्थिर ऑर्डर और सरकार को पर्यावरण के अनुकूल पैकेजिंग मिलती थी। लेकिन कच्चे जूट की भारी कमी और लागत में उछाल ने इस व्यवस्था को कमजोर कर दिया।
खाद्यान्न पैकेजिंग में प्लास्टिक बैग की अनुमति देना सरकार की मजबूरी बन गई, लेकिन यह कदम पर्यावरण और जूट उद्योग-दोनों के लिए चिंता का विषय है।
आगे क्या रास्ता है?
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संकट किसी एक साल या एक फैसले का नतीजा नहीं, बल्कि वर्षों की नीतिगत उपेक्षा का परिणाम है। हालात संभालने के लिए किसानों से समय पर और प्रभावी MSP पर खरीद जरूरी है। जूट बीज को रणनीतिक कृषि इनपुट का दर्जा दिये जाने की जरूरत है।
जूट सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि भारत की पर्यावरण–अनुकूल परंपरा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है। अगर आज ठोस और दूरदर्शी कदम नहीं उठाए गए तो यह सुनहरा रेशा धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमट सकता है और उसके साथ लाखों किसानों और मजदूरों की उम्मीदें भी।