नई दिल्ली। भारत सरकार ने माना है कि वर्ष 2030 तक हर साल 50 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन का लक्ष्य हासिल करना अब पहले जितना आसान नहीं रहा। केंद्रीय नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के सचिव संतोष कुमार सारंगी ने मंगलवार को दिल्ली में आयोजित एक औद्योगिक सम्मेलन में कहा कि अंतरराष्ट्रीय नीतिगत बदलाव और स्वच्छ ऊर्जा के अनिवार्य उपयोग में हो रही देरी के कारण पूरे सेक्टर की समय-सारिणी को फिर से तय करने की जरूरत महसूस हो रही है।
अंतरराष्ट्रीय नीतियों में देरी से बढ़ी अनिश्चितता
सारंगी ने बताया कि स्वच्छ ऊर्जा को अनिवार्य बनाने की अंतरराष्ट्रीय योजनाओं में देरी से हाइड्रोजन की संभावित वैश्विक मांग पर धुंधलापन छा गया है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मेरीटाइम संगठन (IMO) ने जहाज उद्योग में ग्रीन एनर्जी के उपयोग को अनिवार्य करने से जुड़ी वोटिंग स्थगित कर दी। इस फैसले के बाद कई भारतीय कंपनियों ने अपने प्रोजेक्ट्स की समयसीमा कुछ आगे बढ़ा दी है, ताकि मांग और आपूर्ति के संतुलन को समझा जा सके।
घरेलू नीति भी फिलहाल रुकी-बढ़ती लागत ने बढ़ाई सरकार की चिंता
ग्रीन हाइड्रोजन की घरेलू मांग बढ़ाने के लिए भारत सरकार उद्योगों में इसके अनिवार्य उपयोग का नियम लागू करने की तैयारी कर रही थी। लेकिन उत्पादन की ऊंची लागत को देखते हुए इस योजना को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। अधिकारियों के अनुसार, हाइड्रोजन उत्पादन की मौजूदा लागत पारंपरिक ईंधन की तुलना में कई गुना अधिक है, जिससे उद्योग जगत को इसे अपनाने में कठिनाई हो रही है।
30 लाख टन लक्ष्य 2030 तक, पूरी क्षमता 2032 से पहले नहीं
सारंगी के अनुसार, भारत अब उम्मीद कर रहा है कि 2030 तक लगभग 30 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन क्षमता हासिल की जा सकेगी। जबकि 50 लाख टन का मूल लक्ष्य अब 2032 तक पहुंचने की संभावना है। उन्होंने बताया कि प्रस्तावित उत्पादन का करीब 70 प्रतिशत निर्यात के लिए होगा — मुख्य रूप से यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे बाजारों को ध्यान में रखकर। शेष हाइड्रोजन देश के उर्वरक, रिफाइनरी और पेट्रोकेमिकल सेक्टर में इस्तेमाल की जाएगी।
ग्रीन हाइड्रोजन उद्योग के सामने चुनौतियां
कभी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ‘गेमचेंजर’ माने जाने वाले ग्रीन हाइड्रोजन सेक्टर के सामने आज कई व्यावहारिक बाधाएं हैं।अक्षय ऊर्जा से हाइड्रोजन उत्पादन की तकनीक अभी वाणिज्यिक रूप से स्थिर नहीं हुई है। विश्व स्तर पर कई प्रोजेक्ट रद्द या ठप पड़े हैं क्योंकि उत्पादकों को ऐसे खरीदार नहीं मिल रहे जो ऊंची कीमत पर यह ईंधन खरीदने को तैयार हों।
नई उम्मीदें: भारत बना रहा ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर
हालांकि चुनौतियों के बीच भारत के लिए कई अवसर भी हैं। सारंगी ने बताया कि देश के कई बंदरगाह — रॉटरडैम और एंटवर्प पोर्ट्स के साथ मिलकर ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर बनाने की दिशा में बातचीत कर रहे हैं। इसके अलावा, सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (SECI) घरेलू जहाज कंपनियों के लिए ग्रीन मीथनॉल की मांग एकत्रित करने की योजना पर काम कर रहा है। इन परियोजनाओं से हाइड्रोजन परिवहन और निर्यात क्षमता को मजबूती मिलने की उम्मीद है।
विशेषज्ञों की राय: भारत अब भी रेस में आगे
ऊर्जा विशेषज्ञों का मानना है कि लक्ष्य भले कुछ पीछे खिसक गया हो, लेकिन भारत ग्रीन हाइड्रोजन क्षेत्र में अब भी मजबूत स्थिति में है। यदि सरकार और उद्योग जगत मिलकर योजनाओं को सही दिशा में आगे बढ़ाते हैं, तो आने वाले एक दशक में भारत इस क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व की स्थिति में होगा।