हिंदी साहित्य जगत में ऐतिहासिक रॉयल्टी को लेकर खलबली, कई सवाल उभरे

By डॉ.अभिज्ञात

Sep 23, 2025 16:27 IST

हिंदी साहित्य के लिए ज्ञानपीठ से सम्मानित वरिष्ठ लेखक विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के लिए 30 लाख रुपये की रॉयल्टी देने की घोषणा ने साहित्य जगत में व्यापक चर्चा और हलचल पैदा कर दी है।

यह घोषणा हिंद युग्म साहित्य महोत्सव के दौरान रायपुर में कल की गई, जहाँ शुक्ल को हिंद युग्म प्रकाशन की ओर सेयह रॉयल्टी प्रतीकात्मक चेक के रूप में प्रदान की गई। इसे हिंदी साहित्य के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी रॉयल्टी माना जा रहा है। किताबों की व्यापक बिक्री के पीछे कुछ लोगों की दलील है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की वजह से उसने तूफानी गति पकड़ी किन्तु यह दलील लोगों को हजम नहीं हो रही क्योंकि यह पुरस्कार मिलने के बाद किसी लेखक के साथ ऐसा करिश्मा नहीं हुआ,अलबत्ता बिक्री में थोड़ा बहुत उछाल जरूर आया।

प्रकाशक का दावा: बिक्री से ही हुई इतनी कमाईः हिंद युग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी ने बताया कि यह राशि मात्र छह महीनों की बिक्री से प्राप्त हुई है। मार्च से जून 2025 के बीच यह उपन्यास अमेज़न की बेस्टसेलर सूची में शीर्ष पर बना रहा और 87,000 से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। हालाँकि भारतवासी पहले भी नीलोत्पल मृणाल, दिव्य प्रकाश दुबे, और सत्य व्यास जैसे लेखकों की लाखों प्रतियां बेच चुके हैं, लेकिन उनका कहना है कि शुक्ल की किताब की सफलता इसलिए विशेष है क्योंकि वह गंभीर साहित्य की श्रेणी में आती है।

संदेह और आलोचनाएं: क्या यह सब सच है?: इस घोषणा के बाद हिंदी साहित्य के कुछ कई वरिष्ठ और स्थापित साहित्यकारों ने सोशल मीडिया पर इस दावे पर सवाल उठाए हैं। डॉ. शंभुनाथ ने फेसबुक पर लिखा: 'यह कहना कि 2–3 करोड़ की पुरानी किताबें 6 महीने में आम पाठकों को बेची गईं, लोगों को बेवकूफ बनाना है। यह व्यावसायिक स्टंट है।' उनका मानना है कि यह सब सरकारी खरीद, राजनीतिक मंच और प्रचार रणनीति का हिस्सा हो सकता है। कई साहित्यकारों व साहित्यप्रेमियों ने भी इस घटना को सिर्फ प्रचार पाने का तरीका बताया है। समीर दीवान ने सोशल मीडिया पर कहा कि रॉयल्टी एक प्रकाशक और लेखक के बीच का निजी मामला होता है, इसे मंच से प्रदर्शन की तरह प्रस्तुत करना उचित नहीं है। कैलाश बनवासी ने भी सवाल उठाया कि: ‘25-26 साल पुराने उपन्यास की अचानक इतनी बंपर बिक्री कैसे हो सकती है?’ रूप सिंह चंदेल और हरि व्यास जैसे लेखक मानते हैं कि यह एक बाजारू रणनीति है, जो प्रकाशक को करोड़ों का लाभ पहुंचाएगी। बोधिसत्व ने मांग की कि प्रकाशक को अपने कुछअन्य लेखकों की रॉयल्टी का भी खुलासा करना चाहिए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे।

समर्थन की आवाजें: ईर्ष्या क्यों? इसके उलट, कई साहित्यकारों, पत्रकारों और विद्वानों ने इसे एक सकारात्मक बदलाव बताया है। ओम थानवी ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा है: 'अगर चेक से रॉयल्टी दी गई है, तो बिक्री का हिसाब भी होगा। यह हिंदी साहित्य की सफलता है। ईर्ष्या क्यों?' जयश्री राय ने इसे 'केकड़ा प्रवृत्ति' कहा- यानी जब कोई लेखक आगे बढ़ता है तो बाकी उसे खींचने लगते हैं।' डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का कहना है, 'दो घंटे कविता पढ़ने वाले मंचीय कवि 10–15 लाख लेते हैं, तो वर्षों तप करने वाले साहित्यकार को 30 लाख की रॉयल्टी क्यों न मिले?’ प्रभात रंजन का कहना है किताबें बिक रही हैं, हिन्दी में पाठक वर्ग का विस्तार हो रहा है। इससे लोगों को परेशानी क्यों हो रही है।

‘नई वाली हिंदी’ पर कुछ बातेेंः हिंद युग्म के प्रमुख शैलेश भारतवासी ‘नई वाली हिंदी’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका कहना है आंदोलन हिंदी साहित्य को नवीन भाषा और रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश है, जिससे युवाओं और डिजिटल पाठकों को जोड़ा जा सके। भारतवासी कहते हैं –'अब हिंदी पढ़ना कूल हो गया है। विनोद कुमार शुक्ल की सफलता इस बात का प्रमाण है कि गंभीर साहित्य भी अगर सही प्रस्तुति और विपणन के साथ आए, तो वह व्यावसायिक रूप से सफल हो सकता है। ‘नई वाली हिंदी’ को स्थापित करने की कोशिश में लगे भारतवासी के तर्क के अंतरविरोध भी उन्हीं की दलील से उजागर हो रहे हैं क्योंकि जिस तरह की रचनाओं को उन्होंने नई वाली हिन्दी के रूप में प्रचार किया है शुक्ल का साहित्य उसके विपरीत। बलजीत भारती और सुमन बाजपेयी जैसे लोग हिन्द युग्म से प्रकाशित कई लेखकों के की रचनाओं को लुगदी साहित्य की तरह देखते हैं-जिसमें न कथ्य है, न शिल्प, न भाषा, न भाव। उनके अनुसार, यह सिर्फ प्रचार और ब्रांडिंग का परिणाम है, साहित्य की गहराई नहीं।

सकारात्मक क्या है?: इस पूरी घटना को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। कुछ लोगइसे उम्मीद की किरण मानते हैं।यह प्रकरण आशा जगाता है कि गंभीर लेखन अब भी पाठकों तक पहुंच सकता है और व्यावसायिक रूप से सफल हो सकता है। शुक्ल के गंभीर साहित्य के बिक्री के आंकड़े नई वाली हिन्दी की दलीलों के लिए चुनौती हैं।वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों कोसंदेह है कि यह सब कुछ सिर्फ प्रचार और मंचीय नाटक हो सकता है, जिसमें लेखक का उपयोग हो रहा है। यह घटना हिंदी साहित्य में प्रकाशन व्यवसाय, लेखकीय सम्मान और उसकी रॉयल्टी को लेकर एक नई बहस का कारण बनी है। संभव है इससे लेखकों की आर्थिक स्थिति में सुधार आये और अन्य प्रकाशक भी लेखकों को उनकी वाजिब रायल्टी देने को उन्मुख हों।

कहीं भ्रम का कारण यह तो नहीं?: क्या यह विवाद इसलिए शुरू हुआ है क्योंकि बाकी प्रकाशकों ने बिक्री का हिसाब-किताब पारदर्शी नहीं रखा है और वे लगातार यह प्रचार करते रहे हैं कि हिन्दी किताबें बिकती ही नहीं है तो रायल्टी कहां से दें। प्रकाशकों द्वारा हिन्दी में किताबें नहीं बिकने के भ्रम को आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया है, जिसकी आड़ में लेखकों का अनवरत शोषण होता रहा है। हिन्द युग्म ने उस भ्रम को तोड़ दिया कि गंभीर साहित्य नहीं बिकता।

अगर इस रॉयल्टी की पारदर्शिता स्थापित हो जाये तो यह हिंदी साहित्य का स्वर्णिम क्षण है और यदि ऐसा नहीं है तो यह प्रचारतंत्र की बाजीगरी ठहराई जा सकती है।

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